ज़मीन और चेतना
मालविका गुप्ता और फीलिक्स पैडल
Trans. Ragini
“हमें पहाड़ की ज़रूरत है, और पहाड़ को हमारी”
– नियमगिरि और उसको बचाने के आंदोलन के बारे में एक डोंगरिया महिला के शब्द [1]
नियमगिरि पहाड़ियाँ पूर्वी भारतीय राज्य ओडिशा में स्थित पर्वत श्रृंखला हैं, और इन पर भारत के सबसे पुराने वन मौजूद हैं, डोंगरिया कोंध यहाँ पर रहने वाले मुख्य समुदाय हैं। खनन कंपनी, वेदान्ता, ने इस श्रृंखला के सबसे ऊँचे शिखर के नीचे एल्युमीनियम के अयस्क का खनन करने के लिए रिफाइनरी बनाई। 2006 से 2014 के बीच, अलग अलग क्षेत्रों से लोग नियमगिरि को कारगर तरीके से बचाने के लिए साथ आए – अभी के लिए। स्कूली पाठ्यपुस्तक में ओड़िया लोग सीखते हैं कि ओडिशा भारत के सबसे गरीब राज्यों में से एक है, लेकिन खनिज में संपन्न है, जिसमें निहित है कि एक बार इन खनिज पदार्थों का उचित रूप से खनन हो, तो ओडिशा के सभी लोग संपन्न हो जाएँगे। खनन कंपनियों के काम करने के तरीके से ठीक उल्टा!
लाडो सिकाका, एक मुख्य डोंगरिया लीडर, ने रिफाइनरी के बढ़ाने के सन्दर्भ में संयोजित एक जनसुनवाई में इसको इस तरह से रखा: “वेदान्ता हमें स्कूल और रोड से फुसलाने की कोशिश करता है… वो कहते हैं कि इस खनन को करने से अरबों की कमाई होगी। हमारे लिए यह पैसा नहीं है! हमारा जीवन, हमारा माँ-बाप है, और हम इसको बचाने के लिए लड़ेंगे!” 2009 की इस जनसुनवाई में यह कहते हुए उन्होंने अपनी कुल्हाड़ी दिखाई। [2] दक्षिण ओडिशा के पहाड़ों को ढाँकने वाला बॉक्साइट मानसून के पानी को चिकनी मिट्टी की तरह पकड़ता है, जिससे बारहमासी धाराएँ बहती हैं, और इसको और पुख्ता करता है डोंगरिया समुदाय का ऊँचाई के पेड़ काटने पर पाबन्दी का नियम। अगर पहाड़ों को ढँकने वाले बॉक्साइट का खनन हुआ, तो बारिश का पानी सीधा बह जाएगा, और पानी के स्त्रोत के रूप में पहाड़ मर जाएँगे। इन पहाड़ों की आधार चट्टान को खोंदालाइट नाम दिया गया है, कोंध समुदाय के नाम पर। [3]
कई आदिवासी [4] अपने और अपनी ज़मीन के बीच के इस पारस्परिक रिश्ते को सहज रूप से समझते हैं, अपनी पहचान और मूल्यों के एक अहम हिस्से के रूप में। यह उनको बाकी देशों के इंडिजेनस लोगों के साथ भी जोड़ता है। “लैंड एज़ आवर फर्स्ट टीचर” (ज़मीन हमारे पहले शिक्षक के रूप में) [5] ज़मीन पर आधारित सीखने की प्रणाली है जो हाल ही में कनाडा में लागू की गई है, यह उन बदनाम बोर्डिंग स्कूलों को बहाल करने के लिए है जिनमें 1860 के दशक से 1970 के दशक तक इंडिजेनस बच्चों को जाने के लिए मजबूर किया गया था, फोर्स्ड असिमिलेशन या जबरन आत्मसात करने की नीति के तहत। कनाडा में हो रहे ऐसे प्रयास, और ऐसी अन्य कोशिशें जो न्यू ज़ीलैण्ड /आओटेआरोआ, इक्वेडोर, जैसी जगहों पर हो रहीं हैं, इंडिजेनस भाषाओँ और पवित्र रिवाज़ों को वापिस लाने की जगह बना रहीं हैं, जो स्कूलों में एक वक़्त पर प्रतिबंधित थीं; साथ ही कला, क्राफ्ट, पोशाक, नृत्य, कहानियों और किस्सों को सीखने की भी जगह बन रही है। एक तरफ बाकी देशों में हो रहा यह पुनर्जीवन भारत में वर्तमान में आदिवासी समुदायों, संस्कृतियों, भाषाओँ, और सबसे ज़्यादा ज़मीन के साथ जुड़ाव पर, हो रहे आघात और दर्दनाक क्षति को और उजागर करता है।
ज़मीन और जल के रक्षकों के रूप में नेटिव अमेरिकन कार्यकर्ताओं की पहचान, भारत के आदिवासी आन्दोलनों के साथ बहुत समानताएँ रखती है। इक्वेडोर में 2008 से ‘राइट्स ऑफ़ नेचर’ (प्रकृति के अधिकार) संविधान में प्रतिष्ठापित हैं, बोलीविया के कोचाबम्बा डिक्लेरेशन ऑफ़ इंडिजेनस पीपल्स ऑफ़ राइट्स ऑफ़ मदर अर्थ के साथ समन्वय करते हुए। क्विचुआ हाईलैंडर्स धरती को ‘पचमामा’ बुलाते हैं, और उसको और उसके पहाड़ों को पवित्र मानते हैं। यह कोई रोमांचक जुमला नहीं है, बल्कि पूरे अमेरिकी महाद्वीप में निष्कर्षण उद्योगों के खिलाफ उठे अनगिनत आन्दोलनों में मौजूद एक अहम मूल्य है। भारत में भी, नए स्टील प्लांट बनाने वाली कंपनी तक पहले धरती माता को खुश रखने के लिए भूमिपूजन करती है, लेकिन यह सिर्फ नाम वास्ते की मनौती है। आम तौर पर आदिवासी जीवन देने वाली धरती की पवित्रता को सम्मानित करने की ज़रूरत को समझने में मुख्यधारा से कोसों आगे हैं।
इन मूल्यों का एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक आगे बढ़ने में, या ना बढ़ने में, शिक्षा एक बड़ा मुद्दा है। आदिवासी समुदायों में अनगिनत कौशल सीखने की अपनी व्यवस्थाएँ रहीं हैं – ज़मीन से पोषण पाना, शिकार करना, बीनना या खेती करना, प्राकृतिक पदार्थों से हरदिन की ज़रूरत की वस्तुएँ बनाना – जैसे कंघी, डलिया से लेकर औज़ार या घर। कई समुदायों में युवाओं की अपनी जगहें, डोर्मिटरीस, होतीं थीं जहाँ बच्चों को घर से आनंदपूर्ण आज़ादी मिलती थी, बड़े लड़के और लड़कियाँ अपने से छोटों के साथ समाजीकरण से और हँसी-ठिठोली के साथ, नृत्य, किस्से, कहानियाँ, पेहलियाँ, खेल, गीत और अनेक काम के कौशल को साथ में सीखते-सिखाते थे। दक्षिण छत्तीसगढ़ के मुरिया गोंड इस व्यवस्था को “घोटुल” कहते [6], उराँव या कुड़ुख इसको डुमखरिया कहते। जैसे जैसे साक्षरता की ज़रूरत बढ़ी है, स्कूलों का होना और व्यापक हुआ है जो – विशेषज्ञों की नीति सिफारिशों, जैसे स्कूलों को आदिवासी जीवन जीने के तरीकों के अनुकूल करने की सिफारिश, के बावजूद – आदिवासी परिवेश से जुड़ी हर चीज़ को बदनाम और धिक्कार करते हैं।
अधिकतर, ‘ट्राइबल’ स्कूल क्रूर अनुशासन की जगहें होतीं हैं, जहाँ ‘सभ्य’ व्यवहार और ‘विद्या’ रट कर सिखाई जाती है, और ‘पिछड़े’ बच्चों को आज्ञाकारी काम करने वाले बनाने के चलन को मिशनरी रवैये के साथ अपनाया जाता है। अक्सर आदिवासी भाषाएँ पूरी तरह से प्रतिबंधित होती हैं, और जो बच्चे अपनी भाषा को बोलते पाए जाते हैं उनको गंभीर रूप से दण्डित किया जाता है या उनका उपहास किया जाता है। जिस तरह पहले के मिशनरी स्कूल ईसाई धर्म थोपते थे, भारत में भी और अब बदनाम उत्तर अमेरिकी बोर्डिंग स्कूल में भी, जो जबरन आत्मसात करने के नीति के मुख्य केंद्र थे, उसी तरह अभी भी आदिवासी और ईसाई धार्मिक रिवाज़ों के बदले हिन्दू प्रार्थनाएँ और संस्कृत मंत्र, श्लोक थोपे जाते हैं। वर्तमान में, भारत में कम से कम 5000 ट्राइबल आवासीय स्कूल हैं – जितने पहले कनाडा और संयुक्त राष्ट्र अमेरिका में थे, उससे कई ज़्यादा। दुनिया का सबसे बड़ा बोर्डिंग स्कूल ओडिशा की राजधानी, भुवनेश्वर, में है – KISS (कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज), जहाँ 25,000 से अधिक आदिवासी बच्चे एक कैंपस में रहते हैं। छात्रों को लिंग के आधार पर सख्ती से अलग रखा जाता है। वेदान्ता ने दर्जनों डोंगरिया बच्चों को KISS भेजा है, उनके घरों से कई मील दूर, जहाँ उनको घर की याद आती है, जैसे अन्य आदिवासी बच्चों को भी आती है – खासकर उम्र में छोटे बच्चों को। [7]
कई सामाजिक वैज्ञानिकों ने बोर्डिंग स्कूल में गहरे अलगाव को महसूस कर रहे आदिवासी बच्चों के बारे में लिखा है। [8] बच्चे वहाँ जो कुछ भी सीखते हैं, उसमें से कुछ भी उन चीज़ों से मेल नहीं खाता जो उनके माता पिता ने एक पीढ़ी पहले अपनी ज़मीन पर रहकर, अपने समुदाय में रहते हुए सीखा था। किताबों और स्क्रीनों से मिला यह ‘ज्ञान’ अपनी ज़मीन और अपने अनुभवों से कटा हुआ है और अमूर्त है, और यह ज्ञान कंप्यूटर प्रधान स्मार्ट क्लासों में और भी अधिक अमूर्त या दूर-दराज़ का हो जाता है, जैसे KISS में बढ़ावा दिया जाता है। यही अन्य समान शैक्षणिक स्कीमों में पाया जाता है, जैसे दक्षिण छत्तीसगढ़ के दंतेवाड़ा में NMDC द्वारा चल रहा ‘एजुकेशन सिटी’, [9] और पूर्वोत्तर झारखण्ड में अडानी फाउंडेशन द्वारा लागू की गई ‘ज्ञानोदय’ स्कीम [10]। यह दोनों ही ऐसे इलाके हैं जहाँ पुलिस प्रोजेक्ट अधिकारीयों की ओर से काम करती है, और ज़मीन के छीनने का विरोध करने वाले गाँव वासियों के खिलाफ हिंसात्मक दबाव को इस्तेमाल में लाती है [11]। तो, स्मार्ट क्लासरूम का यह ऑफर बच्चों की नज़र में ‘वैधता’ खरीद कर उनको गुमराह करता है, जिससे वे अपने माता पिता के विरोध को ही भुला देते हैं।
इन ‘ट्राइबल’ स्कूलों का ढाँचा और पाठ्यक्रम व्यक्ति को अपने पारिवारिक और सामुदायिक बंधनों से अलग करता है, और एक ऐसे रस्ते की तरफ ढकेलता है जहाँ व्यक्तिगत कामयाबी और प्रतिस्पर्धा या कम्पटीशन पर ही सब कुछ निर्भर करता है। कम्पटीशन ट्राइबल स्कूलों में सिखाए जाने वाले मुख्य मूल्यों में से एक है: परीक्षा में, खेल में, रोज़गार के मौकों में, राजनीती में, व्यवसाय में और कानून में, इन सभी में। इसके विपरीत, सहभाजन या मिलकर बाँटना आदिवासी मूल्यों में अहम है। शिक्षा में भी यह ज़ाहिर होता है – पारम्परिक सीखने के तरीकों में कोई परीक्षाएँ या अंक देने का चलन नहीं रहा है। खनन कंपनियों द्वारा प्रायोजित एथलेटिक गतिविधियों से बच्चों की शारीरिक ऊर्जा, जो पहले सामूहिक नृत्य करने में जाती थी अब, इस तरफ ढकेल दी जाती है, जहाँ कम्पटीशन जीतने वाले और हारने वाले से ही परिभाषित होता है। आजकल, आदिवासी बच्चों को बाहर के मेहमानों के मनोरंजन के लिए डान्स परफॉरमेंस करने के लिए भी तैयार करवाया जाता है – अक्सर उन्हीं खनन कंपनियों के लिए जो समुदायों को विस्थापित कर, ‘विकास’ के नाम पर उनकी ज़मीन पर कब्ज़ा कर रहे हैं। आदिवासी नृत्य अलग अलग गाँवों के बीच उभरे असली लोकतंत्र की अभिव्यक्ति से विकसित हुए हैं। यही सन्दर्भ हंसदा सौवेंद्र शेखर की लघु कहानी, ‘आदिवासी नहीं नाचेंगे’ में दिखता है, जहाँ खनन कंपनियों के लिए नृत्य करने से इनकार करने की कल्पना है, एक ऐसी व्यवस्था में जहाँ नृत्य भी हड़प लिया जाता है। [12]
दमन का एक हिस्सा यह रहा है कि हर जगह के इंडिजेनस या ‘ट्राइबल’ लोगों ने मानव वैज्ञानिकों व अन्य लोगों के हाथ विकृत बयानों और चित्रण का सामना किया है। ऑस्ट्रेलिया, न्यू ज़ीलैण्ड, कनाडा, संयुक्त राष्ट्र अमेरिका के उपनिवेशिक और एकलभाषी स्कूली परंपरा को इंडिजेनस शिक्षकों की कई पीढ़ियों ने चुनौती दी है, जैसे लिंडा टुहिवे स्मिथ ने अपनी प्रभावशाली किताब डोलोनाइज़िंग मेथोडोलोजिज़: रिसर्च एंड इंडिजेनस पीपल्स (1999, 2012); और प्रोफेसर लेस्टर-इरबीना रिगने, जिन्होंने पूरे ऑस्ट्रेलिया में कल्चरली रेस्पॉन्सिव पेडागॉजिस की बुनियाद रखी है, जिसमें ऐसे ‘उकसाव’ हैं जो इंडिजेनस ज्ञानमीमांसा पर ज़ोर दें और आदिवासी ‘एबोरिजिनल बच्चे को भी ज्ञान उत्पादक के रूप’ में देखें। [13]
शिक्षा का उपयोग उपनिवेशवाद के लिए, ज़मीन से बेदखल करने के लिए, वर्चस्व जमाने के लिए, और जबरन आत्मसात करने के लिए जिस तरह होता है, वह ग्लैडसन डुंगडुंग के लेखन की अहमियत को और वैश्विक सन्दर्भ देता है। अंग्रेजी में प्रकाशित उनकी पहली किताब थी – ‘हूज़ कंट्री इस इट एनीवे? अननोन स्टोरीज ऑफ़ द इंडिजेनस पीपल्स ऑफ़ इंडिया’ (2013) – जिसका शीर्षक ही आदिवासी समुदाय द्वारा झेले जा रहे बहु-स्तरीय निर्वासन और बेदखली के अन्याय पर रौशनी डालता है, सारंडा जंगल में, दक्षिण झारखंड में, और कई इलाकों में।
इक्वेडोर में इंडिजेनस लोगों के कॉन्फ़ेडरेशन, CONAIE, अपने देश के 2008 के संविधान में प्रतिष्ठापित 21 इंडिजेनस अधिकारों में से ज़मीन पर सामुदायिक अधिकार को सबसे अहम मानते हैं, और यह दावा करते हैं कि “बिना ज़मीन, बिना क्षेत्र के कोई शिक्षा नहीं”। यहाँ “क्षेत्र” में भूमि की भौतिक अखंडता शामिल है, और साथ ही जो भौतिक के परे है: समुदाय का ज़मीन से आत्मिक जुड़ाव, जो निष्कर्षण और वस्तुवादी नज़रिए से समझना असंभव है। मनोविश्लेषक कार्ल युंग ने अमेरिका के होपी समुदाय के नायक के साथ हुई अपनी मीटिंग के बारे में बताया, जिन्होंने समझाया कि कैसे “श्वेत लोग अपने दिमाग से सोचते हैं”, मुक़ाबले उनके खुद के लोगों के, जो अपने दिल से सोचते हैं। [14]
2011 में जब इक्वेडोर के तब के राष्ट्रपति कोरेया ने बड़े पैमाने पर खनन शुरू करवाया, सभी प्रकार के निष्कर्षणवाद के निरंतर CONAIE विरोध के खिलाफ, उन्होंने ऐसे कई द्विभाषी अंतरसांस्कृतिक (EIB) स्कूलों को बंद करवाया जो CONAIE के प्रभाव से देश भर में शुरू हुए थे, और बड़े स्तर के आवासीय ‘मिलेनियम स्कूलों’ को स्थापित किया। 2017 से जब से कोरेया ने अपना पद छोड़ा, यह EIB स्कूल वापिस शुरु हुए हैं। यहाँ भी, न्यू ज़ीलैण्ड और अन्य देशों की तरह इंडिजेनस मूल्यों, जीवनशैलियों का पुनरुत्थान हुआ है, और अपनी शिक्षा पर आत्म-निर्णय लेना, इस पुनरुत्थान में, ज़मीन और अपने मन के विउपनिवेशीकरण के लिए बुनियादी है।
भारत में इसी तरह का पुनरुत्थान होने में कितना वक्त लगेगा, जब आदिवासी या ट्राइबल समुदाय अपने बच्चों की शिक्षा कैसी और किस तरह से परिभाषित हो, इस पर नियंत्रण वापिस लेना शुरू कर देंगे? पहले से ही, हम कई छोटे स्तर पर चल रहीं पहल देख रहे हैं, जैसे मध्य प्रदेश में आधारशिला और मुस्कान। लेकिन आदिवासी ज़मीन से संसाधनों का तेज़ी से, बेरहम दोहन, जिसमें सतही और भूजल स्रोतों का अंधाधुंध दोहन शामिल है, भारत में सभी के भविष्य की भलाई के लिए खतरा पैदा कर रहा है, और इसके साथ ही औद्योगिक स्कूलों को पूँजी मिल रही है जिससे बच्चों का दिमाग ज़बरदस्ती परिवर्तित हो। किसी समय पर, हमें दुनिया भर में निष्कर्षण परियोजनाओं के कारण होने वाली तबाही के प्रति जागने की जरूरत है, और हम जमीन से जो लेते हैं उसे साझा करने और सीमित करने के आदिवासी मूल्यों में सन्निहित वास्तविक, दीर्घकालिक स्थिरता को समझने की ज़रूरत है, जिससे हम अपनी शिक्षा की प्रणाली को पलटना शुरू करें। [15]
1 ओडिशा में हो रहे खनन पर डाक्यूमेंट्री में, मैत्री पोको कंपनी लोको (Earth Worm Company Man), अमरेंद्र और समरेंद्र दास द्वारा, 2005.
2 जनसुनवाई, लांजीगढ़ के पास, बेलम्बा गाँव, 28 अप्रैल 2009, जिसका उल्लेख फीलिक्स पैडल और समरेंद्र दास की किताब, Out of This Earth, East India Adivasis, 2010, p.167 में है – यह किताब नियमगिरि केस को विस्तार से जाँचती है (नया संस्करण २०२०) लाडो का भाषण यहाँ रिकॉर्ड किया गया है – https://www.youtube.com/watch?v=ipHmVee_uXw.
3 इस ट्राइबल समुदाय के नाम की वर्तनी अलग तरीकों से की जाती है, कोन्द, खोंद, कोंध, ओड़िया नाम कोंधो के आधार पर। कोंध लोग अपने आप को कुई (कुवी, कुबी) बुलाते हैं और उनकी भाषा कुइंगा/ कुबिंगा। ‘खोंदोलाइट’ नाम ब्रिटिश भूवैज्ञानिक टी. एल. वॉकर द्वारा 1902 में दिया गया, जिन्होंने इन पहाड़ों पर बॉक्साइट की मौजूदगी को खोजा था। ‘उन पहाड़ी लोगों खोंद के नाम पर, जो पूर्वी घाट के इस इलाके में रहते हैं, और इन पहाड़ों को पवित्र मानते हैं।’
4 ‘आदिवासी’ – 1930 के दशक से भारत की अधिकतर ट्राइबल जनसंख्या द्वारा इस्तेमाल किया जाने वाला शब्द (सरकारी तौर पर अनुसूचित जनजाति), पूर्वोत्तर भारत के समुदायों के सिवाय।
5 Michelle Kennedy and Joey-Lynn Wabie, Youth Research and Evaluation eXchange, 2020. देखें https://youthrex.com/wp-content/uploads/2020/11/YouthREX-FS-Land-as-Our-First-Teacher.pdf.
6 वेरियर एल्विन की किताब The Muria and their Ghotul (Oxford University Press, London, 1947) एक क्लासिक विवरण है।
7 गुप्ता और पैडल द्वारा ‘The Travesties of India’s Tribal Boarding Schools’, in Sapiens, 16 November 2020, में और विस्तार से चर्चा की गई है, at https://www.sapiens.org/culture/kalinga-institute-of-social-sciences.
8 उदाहरण के लिए देखें, ‘The Education Question’ from the perspective of Adivasis: conditions, policies and studies, Report for UNICEF by P. Veerbhadranaika, Revathi Sampath Kumaran, Shivali Tukdeo and A.R. Vasavi 2012. Bengaluru: National Institute of Advanced Studies. उपलब्ध http://eprints.nias.res.in/333.